सिंदूरी माहताब देता,दूधिया आफ़ताब देता,उसकी हर आरज़ू का,मैं यूँ जवाब देता..वो दूर, है पर,ग़र मेरे करीब होता,गुलशन का हर ऐक,उसको हसीं ग़ुलाब देता..वो है हसीं शख्स ख़ुद,मांगेगा न मुझसे,ऐ सब,सोचता हूँ मैं तब,उसे कैसे नवाज़ देता..जो आसमान सा बृहत,जो सूरज सा उज्जवल,उसे मैं क्या सवाब देता..जिसने रखे सजो कर,ग़म भी जैसे मोती,उस इंसानियत के बुत को,मैं क्या लिहाफ देता..सब सोच कर फिर सोचा,दूंगा नहीं मैं उसको,कुछ मांगता हूँ उससे,क्या वो हसीन मुझ को,एक वादा शुमार देगा,हँसता रहेगा हर दम,ये बात मान लेगा..कितनी रहेगी मुश्किल,तूफ़ान भी घिरेंगे,वो हो कर के सबसे आगे,क़िश्ती निकाल लेगा॥
सिंदूरी माहताब देता,
दूधिया आफ़ताब देता,
उसकी हर आरज़ू का,
मैं यूँ जवाब देता॥
saksham
वो है हसीं शख्स ख़ुद, मांगेगा न मुझसे,ऐ सब, सोचता हूँ मैं तब, उसे कैसे नवाज़ देता.. जो आसमान सा बृहत, जो सूरज सा उज्जवल, उसे मैं क्या सवाब देता.. जिसने रखे सजो कर, ग़म भी जैसे मोती, उस इंसानियत के बुत को, मैं क्या लिहाफ देता.. सब सोच कर फिर सोचा, दूंगा नहीं मैं उसको, कुछ मांगता हूँ उससे, क्या वो हसीन मुझ को, एक वादा शुमार देगा, हँसता रहेगा हर दम, ये बात मान लेगा.
शुक्रवार, 6 अगस्त 2010
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